देवी राज राजेश्वरी मंदिर थाती-कठूड़ बूढ़ाकेदार

Dineshlal thati
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दोस्तो कुछ दिन पहले मेने एक पुस्तक पढ़ी "श्री बूढ़ा केदार दर्शन" जो कि श्री रामप्रसाद सेमवाल जी  के द्वारा लिखी गई है यह पुस्तक खरीदने के लिये आप सम्पर्क कर सकते है मोo नo 09627796334 पर । पुस्तक मे श्री बूढ़ाकेदार धाम के अलावा उत्तराखंड के अन्य तीर्थ स्थलों के बारे मे भी जानकारी दी गयी है । वैसे तो पुस्तक मे बहुत से मन्दिरों के बारे मे लिखा गया है लेकिन जिस मंदिर के बारे मे  मुझे सबसे अच्छा लेख लगा उस लेख को  आप लोगों के साथ साझा कर रहा हूं । उम्मीद करता हूँ कि आपको यह लेख आपको पसंद आयेगा । तो चलिए जानते हैं इस मंदिर के बारे में


माँ राज राजेश्वरी मंदिर

स्थिति- 

त्रिपुर की सुन्दरी माँ राज राजेश्वरी देवी का मंदिर प्राचीन काल से ही थाती कठूड़ पट्टी के थाती गांव के मध्य "त्यूं" नामक स्थान पर बना है मन्दिर के फर्श चौतेरे पर बड़े-बड़े भारी भरकम पत्थरों से चिणाई की गई है दूर से मन्दिर तीन मंजिला लगता है जिसका ऐक मंजिला फर्श से ही भरा हुआ है ।
प्रथम मंजिल मे दो कक्ष आगे पीछे है । प्रवेश द्वार वाले कक्ष में एक हवन कुंड बना है । जिसमें पहले सी हवन यज्ञ हो आया है ।

पौराणिकता - 


जनश्रुति के अनुसार टिहरी रियासत के राजाओं का विचार यहां राजधानी बनाने का भी बना था । जिसके परिक्षण के लिए राजकुमार धूलाशाह ने अपने ईष्ट देवी राज राजेश्वरी के ऐक श्रीयंत्र को लेकर यहाँ बस गया । ऊंचे चबूतरे पर देवी मंदिर बनवाकर अपना महल आवास भी यहीं बनवा दिया साथ मे आये देवी पुजारियों को भी बनवा कर पूजा विधान चलने लगा यह राज परिवार प्रतिवर्ष शारदीय नवरात्रों मे थाती कठूड, गाजणा कठूड़ नाल्ड़ कठूड़ के लोगो से सहयोग लेकर नवरात्र पूजन करते थे कर रूप मे देण अथवा सरसों का तेल पिरोया जाता था जिससे मंदिर मे अखंड दीपक जलाये जाते थे ।
कालांतर मे भौगोलिक विषमताओं के कारण राज परिवार के लोग वापस टिहरी मे चले गये और देवी की पूजा व्यवस्था हेतु गूंढ रूप मे जमीन देकर तथा राज निर्देश देकर पूजा व्यवस्था कर गये और कह गये की प्रतिवर्ष शारदीय नवरात्र की समाप्ति पर हरियाली प्रसाद के रूप मे राज दरबार मे पहुंचानी अनिवार्य है । इस प्रतिकर के रूप मे पूजा करने वाले ब्राह्मण वंशज को उत्तरीय वस्त्र एवं दक्षिणा के रूप मे कुछ धन दिया जाता था । आजादी के बाद टिहरी रियायत के भारतवर्ष मे विलय के बाद ये प्रथा समाप्त हो गयी ।

वर्तमान पूजा व्यवस्था -

राज व्यवस्था समाप्त होने के बाद देवी पुजारीवंशजों को गूंढ मे दी गई जमीन से ही अक्षत एंव दीपक हेतु तेल आता है । इस मंदिर मे सप्ताह में दो बार पूजा होती है रविवार और बुधवार को विशेषकर संक्रांति,पर्व दिन, ग्रहण एवं हिन्दू त्यौहारों पर अनिवार्य रूप से पूजा की जाती है ।

विशेष संस्कारिक दर्शन -

थाती कठूड पट्टी के समीपस्थ गांव मे यदि किसी लड़की की शादी हो तो दूल्हा दुल्हन विदाई के पूर्व अर्थात डोली पर चढ़ने से पहले देवी राजराजेश्वरी मंदिर मे आकर देवी से आशीर्वाद लेकर ही डोली मे बैठती है ।

जनश्रुति - 

श्री देवी राज राजेश्वरी मंदिर में देवी सिंहासन के पीछे चार बढ़े खड्ग (दुधारी तलवार) है जिन पर प्रतिवर्ष नवरात्र मे नवीन वस्त्र  (लाल ढूल) सफेद तागे के साथ बांधा जाता है । कहते है इन्हें कभी नंगा नही किया जाता है । और इनमे से ऐक तलवार भूत प्रेतों से छीनकर स्थापित किया गया है । जिन्हे खांडा भी कहते हैं । यही खांडा प्राचीन काल मे यहाँ से ले जाकर बूढ़ाकेदार मंदिर मे पीर के सम्मुख रखा जाता था । नवरात्रि मे कालरात्रि की रात को देवी मंदिर के दाहिनी ओर के चक्र मे (बागी) की बली दी जाती थी और यज्ञ कुण्ड मे उसी पशु के कलेजे का हवन किया किया जाता था । अष्टमी को अंदर बकरी की बलि एंव बाहर बाये तरफ के चक्र मे पुनः बागी की बलि दी जाती थी । यह तामसिक पूजा हवन था । पुनः  नवमी के दिन कई बकरियों की बलि (बखरूज) के रूप मे दी जाती थी, यह प्रथा भी सन् 1977 ई0 मे बन्द कर दी गई ।

शिलालेख - 


देवी राज राजेश्वरी के मंदिर मे कई शिलालेख थे जिनमे से सम्वत् 1930 विक्रमी मे मंदिर जीर्णोद्धार वाला लेख पठनीय है । विक्रमी सम्वत् 2030 ग्राम समाज द्वारा देवी मंदिर का पुनः निर्माण कराया गया देवी कक्ष के ऊपर पठालों के स्थान पर ऊँचा गुम्बदाकार दिया गया है जिस पर कलश चढ़ाये कये हैं इसके अलावा ऐक परिक्रमा गैलेरी का निर्माण भी किया गया है । आज भी सूर्योदय की पहली किरण देवी मंदिर पर ही पड़ती है । गांव के मध्य चौतरे में बने होने के कारण इसकी सुन्दरता अवर्णनीय है ।

।।। जय माता दी ।।।

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